आवा राहर के विषय म जानब कि ‘राहर’ का होथे- आघू जमाना में पानी पलोय के उपाय नई रहत रहीस हे
क बखत नानपन म मेंहा मोर काकी के मइके कुथरौद गये रहेंव। उहां हाट घुमत-घुमत देखेंव कि दु ठन बइला ल लम्हा डोरी म फांद के किसनहा ह आघू रेंगाय अऊ पाछू रेंगाय। नानपन के जिग्यासा ह अड़बड़ रहिथे, मोरो जिग्यासा रहय नइ गिस अऊ येहा मोर ददा ल पुछ पारेंव ये काये गा। हमन बइल गाड़ा-बघ्घर म फआंद के आघु कोती रइगस देखे रहेव, फेर ये कइसे अलकरहा बइला ह आघु जाथे अऊ पाछु आथे। तब मोर ददा ह बतइस कि येला ‘राहर’ आय। आवा राहर के विषय म जानब कि ‘राहर’ का होथे- आघू जमाना में पानी पलोय के उपाय नई रहत रहीस हे, तभो ले किसनहा मन हा अपन कोलाबारी-बखरी अपन महिनत के पसीना ल ओगरा के साक-सब्जी अऊ आनी बानी के जिनिस उपजा लेवय। ओ समे म पानी के उपाय के रूप म कुंआ अऊ बवली खनय। कुंआ, बवली के पार म दु ठन सो-सोज लम्बा-लम्बा खंभा गड़ा जो खंभा म बड़ जबड़ डोरी बांधय। लम्हा डोरी के फोंक म जुड़ा के संग बइला जोड़ी या एक बइला फांदय अऊ दूसर फोंक म ‘मोट’। ‘मोट’ चमड़ा के बोरा कस सिलाय रहिथे जेला आघू बाल्टी बरोबर उपयोग करयं। ‘मोट’ के फोंक ला उही बडख़ा डोर म जोड़े रहिथे। बइला ल सिखोय रहिथे कि किसनहा के दपका (हांक) ल सुन के बइला जोड़ी (एकड़ा बइला) आघु अऊ पाछु आथे। जब बइला जोड़ी पाछु म रहिथे तब ‘मोर’ कुआं, बावली के भीतरी जाथे, अऊ जइसने-जइसने बइला जोड़ी आघु रेंइगथे तब मोर ले पानी उपर आथे। ये किसिम के जोखा ल कइबे ‘राहट’। ‘राहट’ बड़े फकार मुंघरहा, बेरउत्फांदे जावय। किसनहा मन के एकता, सम्मति अऊ भाईचारा के परतीक आवय ‘दउंरी’ दउंरी धान मिसे के एक ठन तरकीब आय। बिचारा (खलिहान) के बीचो-बीच एक खंभा गड़े रहय जेला ‘मेड़वार’ काहय। ‘मेड़वार’ धनबहार (अमलतास) लकड़ी के बने रहिथे। ‘मेड़वार’ किसनहा मन के ‘धनदेवता’ होथे। ‘मेड़वार’ म एक ठन डोरी लगे रहिथे, जेमा बइला फंदाथे। उही डोरी म बरोबर-बरोबर धुरिहा म कानी लगे रहिथे। ओ कानी अपन-अपन ‘बियारा’अऊ ‘फेर’ हिसाब ले दस-बारा के संख्या में होथे। उही कानी म बइला ल फांदय। ‘मेड़वार’ के ठीक बगल म पहिली बइला फंदाय तऊन ल ‘मेडि़हा’ काहय। ‘मेडि़हा’ ल रइंगे बर कम लागथे लेकिन समपूरन दऊंरी के संचालन के भार उही ‘मेडि़हा’ उपर रहिथे। ‘मेड़वार’ के आखिरी म जेन बइला फंदाथे तेला ‘पखरिया’ कइथे। ‘पखरिया’ ल गोल घुमे बर अड़बड़ लागथे फेर महिनत नई लागय। बइला मन ले खेदे बर जेन आदमी लगे रइथे तेला ‘दउंरहा’ अऊ सबो बइला ल ‘दउंरिहा’ कइथे। ‘छउंरी’ मं बइला मन ‘मेड़वार’ के चारों खुंट ‘पएर’ म गोल-गोल घुमथे। गोल-गोल घुमे से दउंरिहा के खुर ले पएर के धान मिसाई होवे। किसनहा मन घर एक, दु जोड़ी बइला रहाय।
तब गांव परोस के सब्बो-सुनता सलाह म दु-पांच झन किसनहा मन मिल के दउंरिहा बइला सकेले। अऊ जतका किसनहा मन सुनता-सलाह म चले ओला ‘सपरिहा’ कइथे। पहिली धान मिसे के परमुख तरकीब दउंरी, बेलन अऊ टट्टा गाड़ी रहाय। कालांतर म ये सब नंदा गेहे लेकिन आज भी इने-गिने जगह म ये पराचीन संस्किरिति के दरशन मिलथे। ‘दउंरी’ हमर संस्किरिती के पराचीनतम अऊ मित्रवत भाईचारा के सुघ्घर ‘परतीक’ आवय।
अर्जुन धनंजय सिन्हा
रायगढ़